Sunday, 8 February 2015

घाव जो थे हरे वक़्त के साथ अनजाने में भरे.......

घाव जो थे हरे 
वक़्त के साथ अनजाने में भरे 
पर एहसास गुनाह के 
लौट आते हैं 
हर अँधेरी रात … 
एक सुगबुगाहट होती है 
हर लम्हे हर घड़ी ,
बीतते वक़्त के साथ 
उम्मीद जगती है माफ़ी की ,
जब -जब सुलगती  है 
गुनाहों की आग....... 

आज माफ़ी मिल जाये ,
 या यूँ ही दिन ढल जाये,
जैसे ढलता है हर रोज,
और फिर वही अफ़सोस,
वही गुनाह का बोझ ,
लेकर चला मैं अपने साथ ,
और इन्ही ख्याल में ,
गुजारी आज की रात…

4 comments:

  1. आज माफ़ी मिल जाये ,
    या यूँ ही दिन ढल जाये,
    जैसे ढलता है हर रोज,

    bahot badhiya !

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