घाव जो थे हरे
वक़्त के साथ अनजाने में भरे
पर एहसास गुनाह के
लौट आते हैं
हर अँधेरी रात …
एक सुगबुगाहट होती है
हर लम्हे हर घड़ी ,
बीतते वक़्त के साथ
उम्मीद जगती है माफ़ी की ,
जब -जब सुलगती है
गुनाहों की आग.......
आज माफ़ी मिल जाये ,
या यूँ ही दिन ढल जाये,
जैसे ढलता है हर रोज,
और फिर वही अफ़सोस,
वही गुनाह का बोझ ,
लेकर चला मैं अपने साथ ,
और इन्ही ख्याल में ,
गुजारी आज की रात…
आज माफ़ी मिल जाये ,
ReplyDeleteया यूँ ही दिन ढल जाये,
जैसे ढलता है हर रोज,
bahot badhiya !
Thank you sir.. :)
DeletePensive and touching-i loved it.
ReplyDeleteThank you very much for appreciation.. :)
Delete