इंसानियत खड़ी है जिस नींव पर
और इन्सान होने के एहसास में
कभी-कभी क्यों खोट नजर आता है
चाहता हूँ शामिल होना तेरी जिंदगी में
पर एहसास गुनाह का,
ना जाने क्यूँ मन से उतर नहीं पाता है ,
हाँ जब होती है पहली बारिश,
खुशबू मिट्टी की,
मुझे जिन्दा होने का एहसास दिला देती है
जब-जब खो जाता हूँ गुरुर के अँधेरों में,
रोशनी सूरज की
मुझे बचाने चली आती है.।
थक जाता हूँ अपमान के घूँट पी कर जब
खुली हवा में थोड़ा साँस ले लेता हूँ ,
कभी माँग लेता हूँ खुद से माफ़ी ,
कभी खुद को माफ़ कर लेता हूँ...
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