Wednesday, 22 October 2014

काश निकल आते बाहर दायरे से नासमझी के अपने...

"काश निकल आते बाहर दायरे से नासमझी के अपने ,
ना गुनाहों का ये बोझ होता ,
ना गलत ये दौर होता ,
ना तपिश होती सवालों में इतनी ,
ना नश्तर से चुभते जवाब जिंदगी के। 

काश थोड़ा सब्र और रखा होता,
ये दौर अलग होता,
न यूँ बिखरने का शोक होता ,
ना ताउम्र बिछड़ने का अफ़सोस होता। ............. "

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